उत्तराखंड

देश को वन नेशन, वन इलेक्शन का पुराना अनुभव

सुदीप पंचभैया।

लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ कराने को लेकर इन दिनांे देश में चर्चाएं तेज हैं। इस प्रकार की व्यवस्था का देश को अनुभव है। वर्ष 1967 तक ऐसा ही होता रहा है। आज की परिस्थितियों में माना जा रहा है कि ये जरूरी है।

स्वतंत्र भारत में वर्ष 1952, 57 में हुए चुनाव में लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे। 1959 में केरल में केंद्र सरकार ने 356 का पहली बार प्रयोग किया। इसके बाद लोकसभा और राज्य विधानसभा का चुनाव एक साथ कराने के क्रम में व्यवधान आया।

1960 में केरल में पहली बार मध्यावधि चुनाव हुए। इसके बावजूद 1967 तक देश में अधिकांश राज्य विधानसभा के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ ही हुए। 1970-71 में ये क्रम पूरी तरह से बिखर गया। तब लोक सभा समय से पहले भंग हो गई और मध्यावधि चुनाव कराने पड़े। इसके साथ ही 356 का प्रयोग भी खूब हुआ।

इसको लेकर सवाल भी खूब उठे। साथ ही वन नेशन, वन इलेक्शन की व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त हो गई। हां, कुछ राज्यों में बाद के सालों में भी ये अनुभव दिखा। 1989 में लोकसभा और यूपी में विधानसभा के चुनाव एक साथ हुए थे।
इस तरह से कहा जा सकता है कि वन नेशन, वन इलेक्शन का विचार नया नहीं है। देश को इसका अनुभव है। 1980 के दशक के बाद देश में फिर से लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का विचार आता रहा है। लॉ कमिशन ने भी इसकी सबल संस्तुति की है।

आज की परिस्थितियों पर गौर करें तो वन नेशन, वल इलेक्शन जारी है। ये विकासोन्मुखी विचार है। ये बात किसी से छिपी नहीं है कि लगातार चुनावों के कारण देश की व्यवस्था कई तरह से प्रभावित होती है। सरकार को नीतिगत निर्णय लेने की दिक्कतें आती हैं।

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार इस वन नेशन वन इलेक्शन पर आगे बढ़ रही है। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है। समिति देश में वन नेशन वन इलेक्शन पर अपनी रिपोर्ट केंद्र सरकार को देगी। इस बीच 18 सितंबर से सरकार ने पांच दिन का विशेष सत्र कॉल किया है।

संसद के इस विशेष सत्र का अभी तक एजेंडा सामने नहीं आ सका है। चर्चा है कि इस सत्र में वन नेशन, वन इलेक्शन पर चर्चा हो सकती है। हालांकि इस पर अभी तस्वीर स्पष्ट नहीं है। हां, देश में आम जन के बीच इसको लेकर अच्छी खासी चर्चाएं शुरू हो गई हैं।

इस मामले में विपक्ष के कुछ सवाल जरूर हैं। पब्लिक डोमेन में भी इसको लेकर कई सवाल हैं। दरअसल, वन नेशन वन इलेक्शन की बात अच्छी है। मगर, इसमें तकनीकी पेचदगियां बहुत हैं। क्या वन नेशन, वन इलेक्शन की व्यवस्था से मध्यावधि चुनाव की संभावनाएं समाप्त हो जाएंगी। त्रिशंकु लोकसभा और विधानसभा की स्थिति में क्या होगा।

क्या वन नेशन वन इलेक्शन की व्यवस्था जनप्रतिनिधियों को सरकार चलाने के लिए मजबूर करेगी। क्या किसी भ्रष्ट सरकार को इसलिए पूरा पांच साल मिलेगा कि देश में वन नेशन वन इलेक्शन की व्यवस्था है ?

इसके अलावा भी तमाम सवाल देश के मन में हैं। सवाल ये भी है कि क्या धारा 356 पूरी तरह से निष्प्रभावी हो जाएगी। इसके लिए क्या व्यवस्था होगी ये देखने वाली बात होगी। संविधान में क्या-क्या संशोधन से वन नेशन, वन इलेक्शन का विचार धरातल पर उतर सकेगा इस पर देश की निगाह है।

इस पर जल्दबाजी में कोई निर्णय नहीं लिया जाना चाहिए। विपक्ष के तर्कों को भी स्थान मिलना चाहिए। पांच-छह माह पूर्व चुनी गई राज्य सरकारों को वन नेशन वन इलेक्शन के नाम पर डिस्टर्ब नहीं किया जाना चाहिए। विपक्ष के स्तर से ये सवाल प्रमुखता से उठाया जा रहा है।

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