चुनावी शोर से गायब हुए मध्यम वर्ग के मुददे
सुदीप पंचभैया
ऋषिकेश। देश का मध्यम वर्ग राजनीतिक दलों के फोकस से लगातार दूर हो रहा है। उसके मुददों/जरूरतों को राजनीतिक दल अब बहुत ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं। सरकारी/ प्राइवेट कर्मचारी और छोटे व्यापारी इसमें शामिल हैं।
देश का मध्यम वर्ग मतलब देश की तरक्की के लिए सबसे अधिक त्याग करने वाला वर्ग। देश के बाजार को गति देने वाला वर्ग। देश के बैंकों को लोन की किस्त से सिंचने वाला वर्ग। जिसकी आय सरकार के नियंत्रण/नजर में होती है। बगैर चूं किए जिसका आयकर तय हो जाता है। राजनीतिक दलों/ प्रत्याशियों के पक्ष में माहौल बनाने और राजनीतिक दलों के निष्ठावान कार्यकर्ताओं की सबसे अधिक संख्या इसी वर्ग के परिवारों से होती है।
इस वर्ग में नौकरीपेशा लोग अधिक आते हैं। इसके अलावा छोटे व्यापारी और इससे जुड़े अन्य उपक्रम से संबंधित लोग इस वर्ग में आते हैं। ये वर्ग आगे बढ़ने के सपने देखता है और इसे पूरा करने के लिए मेहनत करता है। विश्व में भारत को मिल रही तवज्जो के पीछे मध्यम वर्ग का बड़ा हाथ है।
वास्तव में मध्यम वर्ग की मेहनत का माइलेज का उपयोग सरकार अधिक रही रही है। बहरहाल, कुछ सालों से दिख रहा है कि राजनीतिक दलों के लिए मध्यम वर्ग अब बहुत अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। यही वजह है कि चुनाव के शोर में मध्यम वर्ग के मुददों/जरूरतों पर कोई भी राजनीतिक दल कुछ भी नहीं बोल रहा है।
इसी मध्यम वर्ग के मुख्य हिस्से सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन बहाली की मांग पर केंद्र सरकार चुनाव में भी कुछ बोलने को तैयार नहीं है। सरकारी नौकरियां तेजी से सिमट रही हैं। आने वाले कुछ सालों में ये इस वर्ग की आर्थिक हैसियत का प्रभावित होना तय है। इसी प्रकार मध्यम वर्ग में शामिल छोटे व्यापारियों की स्थिति भी लगातार कमजोर हो रही है।
इस वर्ग की बेहतरी के लिए राजनीतिक दलों के पास कोई प्रोग्राम ही नहीं है। दरअसल, इस वर्ग ने कभी अपनी संख्या और अहमियत राजनीतिक दलों को दिखाई ही नहीं। इसमें सबसे बड़ी कमी एका की रही है। मध्यम वर्ग ही सबसे अधिक श्रेणियों में बंटा है।
राजनीतिक दलों के सबसे अधिक निष्ठावान कार्यकर्ता इसी वर्ग से आते हैं। इस वर्ग से संबंधित लोग राजनीतिक दलांे में मध्यम वर्ग के मुददों की एडवोकेसी करने के बजाए अपने निजी हितों पर अधिक फोकस करते हैं। संभवतः यही वजह है कि राजनीतिक दल इस वर्ग को बहुत अधिक तवज्जो देने को तैयार नहीं है। उल्टे सरकार के खर्चे कम करने के नाम पर इसी वर्ग के हितों पर सबसे अधिक चोट हो रही है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।