शिक्षा के बाजार में सरकारों की बेचारगी
सुदीप पंचभैया।
शिक्षा के बाजार में सरकारों ने स्वयं को बेचारगी के खोल में लपेट लिया है। इस खोल के लिए समाज प्रोटेक्शन वॉल की तरह काम कर रहा है। समाज पर बाजार का जादू इस कदर हावी है शिक्षा के हद स्तर पर पहुंच चुके व्यावसायीकरण पर समाज चुप्पी साधे हुए है।
शिक्षा के गुरूकुल जैसे आदर्श सिस्टम वाले भारत में शिक्षा अब पूरी तरह से बाजार का माल बन गई है। छात्र/अभिभावक उपभोक्ता बन गए हैं। माल की क्वालिटी और स्कूलों की सुविधा के विज्ञापन हो रहे हैं। समाज मेरी दुकान में अच्छी शिक्षा को अब पूरी तरह से आत्मसात कर चुका है।
शिक्षा का इस कदर व्यावसायीकरण हो गया है कि भ्रष्टाचार का बड़ा हिस्सा इस व्यावसाय में खप रहा है। पिछले 20 सालों में शिक्षा की प्रावेटाइजेशन से इसे देखा और महसूस किया जा सकता है। इससे एडमिशन की मारामारी जरूर कम हुई है। मगर, शिक्षा पूरी तरह से बाजार के हवाले हो गई है। परिणाम शिक्षा में बाजार का हर हाल में मुनाफे के रंग कई तरह से दिखने लगे हैं।
यहां परीक्षा का परिणाम गौण होने लगे हैं। मोटी फीस लेकर बाजारी शिक्षा में पास का प्रमाण पत्र मिलने की अदृश्य गारंटी भी होती है। आकर्षक और बड़े-बड़े शब्दों वाली शिक्षा नीति शिक्षा के ऐसे व्यावसायीकरण पर चुप्पी साधे हुए है। शिक्षा में चरम पर पहुंच चुके व्यावसायीकरण पर सरकारंे की और हैरान करने वाली है।
अभी तक स्कूली शिक्षा में दिखने वाला व्यावसायीकरण अब उच्च शिक्षा में भी दिखने लगा है। पूरी तरह से बाजार के रंग में रंग रही शिक्षा के मामले में सरकार की बेचारगी समझ से परे होती है। प्राइवेट स्कूलों की अंटशंट फीस और अन्य खर्चें लगातार बढ़ रहे हैं। लोगों को नौनिहालों के अच्छे भविष्य के सपने दिखाकर चल रहे इस खेल को सरकारें समझने का प्रयास भी नहीं कर रही हैं।
उत्तराखंड में पिछले पांच सालों में सरकार ने कई बार फीस एक्ट बनाने की बात कही। मगर, फीस एक्ट नहीं बना। किताब-कॉपी में लूट पर प्रशासनिक अमला खूब सक्रिय हुआ। मगर, हुआ कुछ नहीं। ऐसा करने वाले सभी स्कूल पूरी तरह से सलामत ही नहीं हैं बल्कि पूरी एनर्जी से काम में लगे हुए हैं।
दरअसल, शिक्षा का बाजार अब समाज की मनोदशा को अच्छे से समझ चुके हैं। बाजार ने पहले सरकारी स्कूलों के बारे में भ्रम फैलाया। इस भ्रम को फैलाने में मीडिया की भी खूब भूमिका रही। सरकारी स्कूलों के शिक्षकों से लेकर संसाधनों पर खूब टिप्पणियां हुई। गरज सिर्फ ये थे कि सरकारी स्कूलों के प्रति समाज में अविश्वास पैदा किया जाए।
बाजार इसमें काफी हद तक सफल भी रहा। सरकारी स्कूलों में कुछ व्यवस्थागत खामियां हो सकती हैं। इन्हें दूर भी किया जा सकता है। सरकारी स्कूलों की अच्छी व्यवस्थाओं पर कोई चर्चा नहीं होती। ये चर्चा नहीं होती कि सरकारी स्कूलों में क्वालीफाइड शिक्षक होते हैं। उनकी मेधा का समाज लाभ नहीं ले रहा है। ऐसा बाजार द्वारा फैलाए गए भ्रम की वजह से हो रहा है।
ये भ्रम अब सरकारों को भी पसंद आने लगा है। वजह सरकारी स्कूलों में छात्र संख्या घट रही है। इस पर सरकारें स्कूलों को बंद करने का सबसे सरल विकल्प चुन रही हैं। सरकारें प्राइवेट स्कूलों की मनमानी पर गौर करने को तैयार नहीं हैं। इस मामले में सरकारें हर स्तर पर बेचारगी की सूरत मंे दिखती हैं। बाजारी शिक्षा को लेकर सरकार के बेचारगी के खोल को समाज भी प्रोटेक्शन वॉल की तरह काम कर रहा है।
समाज शिक्षा के मामले में सरकार से सवाल नहीं कर पा रहा है। कारण समाज अपने नौनिहालों के लिए बाजार द्वारा दिखाऐ जा रहे सपनों को पूरा करने की जददोजहद में लगा हुआ है।